सुप्रीम कोर्ट ने 28 साल पुराने हत्या के मामले में हाई कोर्ट के फैसले को किया रद्द, दोषी बाप बेटे की जोड़ी को किया बरी
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- June 22, 2023
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सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में 28 साल पुराने हत्या के एक मामले में दोषी पिता पुत्र की जोड़ी को अभियोजन द्वारा उनकी दोषसिद्धि को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहने पर बरी करने का आदेश पारित किया।
इस मामले में पीठ एक 28 साल पुराने हत्या के मामले में निचली अदालत और हाईकोर्ट द्वारा दोषी क़रार दिए जाने के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रही थी।
जस्टिस वी रामसुब्रमण्यन और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने इस मामले में निचली अदालत और उत्तराखंड हाई कोर्ट द्वारा अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि और सजा के फैसले को रद्द कर उन्हें बरी किए जाने का आदेश दिया।
अपीलकर्ताओं पर आरोप था कि उन्होंने 4 अगस्त 1995 को भूमि विवाद की रंजिश में अल्ताफ हुसैन की कथित तौर पर उस समय हत्या कर दी थी जब वह मुक़दमे की कार्यवाही के लिए रूड़की कोर्ट जा रहा था। जिसके बाद 25 अप्रैल 1998 को निचली अदालत ने आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी पाए जाने पर दोनों दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। 2010 में हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले की पृष्टि की थी।
अपीलकर्ताओं ने 2011 में हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।
ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 16 अगस्त 2021 को आरोपी /अपीलकर्ता संख्या 2 के विरुद्ध उसके मौत के पश्चात् अपील को समाप्त कर दिया था जबकि अपीलकर्ता संख्या 1 की आयु अब 79 साल है और वह 6 साल जेल में बिता कर 2013 से ज़मानत पर है।
इस मामले में अपीलकर्ता की ओर से तर्क का मुख्य आधार यह था कि एफआईआर में अंतर्वेशन है इसके समय को पूर्व किया किया गया था।
दरअसल एफआईआर दिनांक 04.08.1995 को दोपहर 1:50 बजे दर्ज की गई थी और ओवर राइटिंग कर इसे बदलकर सुबह 9:00 कर दिया गया था।
अपीलकर्ताओं का एक तर्क यह था कि हालांकि मृतक की हत्या के समय उसका पुत्र और भतीजा उसके साथ थे लेकिन दोनों में से किसी ने मृतक को आरोपी/अपीलकर्ताओं के हमले से बचाने और उसे चिकित्सा सहायता देने का प्रयास नहीं किया इसके बजाय वे शिकायत दर्ज कराने के लिए दौड़ पड़े जो अत्यधिक अप्राकृतिक है।
अपीलकर्ताओं के पक्ष में एक तर्क यह भी था कि इस घटना का कोई स्वतंत्र चश्मदीद गवाह नहीं है और एक नामजद स्वतंत्र गवाह यानी ताहिर से पूछताछ नहीं की गई। एक अन्य स्वतंत्र गवाह मो. अफजल की गवाही विरोधाभासी है और अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं करती है।
कोर्ट ने पाया कि अभियोजन ने बस यह साबित करने के लिए कि मृतक की हत्या कोर्ट जाते समय हुई थी एफआईआर के समय को ओवर राइटिंग कर 1:50 को 9:00 बजे कर दिया था। एफ आई आर रिपोर्ट लगभग 4 दिनों की देरी से 8 अगस्त 1995 को कोर्ट भेजी गई थी।
कोर्ट ने कहा कि पीछा किये जाने पर आरोपी / अपीलकर्ता लोई और साइकिल छोड़ कर भागे थे जिसे जांच अधिकारी ने बरामद किया था कोर्ट के समक्ष इसे प्रस्तुत नहीं किया गया और रिकॉर्ड पर ऐसा कोई सबूत नहीं है जो यह स्थापित कर सके कि वास्तव में उक्त लोई और साइकिल आरोपी अपीलकर्ताओं की थी।
कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपी /अपीलकर्ताओं की उपस्थिति को आसानी से साबित किया जा सकता था यदि घटनास्थल से बरामद उपरोक्त दो वस्तुओं को पेश किया जाता और यह स्थापित किया जाता कि वह आरोपी /अपीलकर्ताओं की हैं।
कोर्ट ने पाया कि एफआईआर के समय में ओवर राइटिंग कर छेड़छाड़ की गई जिसने अभियोजन के मामले को कमज़ोर बना दिया इस के अतिरिक्त इस मामले में गवाह कथित हमले के संबंध में कोई भी सामग्री का खुलासा करने विफल रहे और इसे स्थापित नहीं कर सके कि अपीलकर्तओं ने ही मृतक पर हमला किया था।
कोर्ट ने कहा कि उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हमारा विचार विचार है कि अभियोजन पक्ष अपीलकर्ताओं पर मृतक पर हमले और उसकी मौत में शामिल होने के आरोप को साबित करने में पूरी तरह विफल रहा है।
कोर्ट ने निचली अदालत और हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए अपीलकर्ता को संदेह का लाभ देते हुए बरी किए जाने का आदेश दिया।
केस टाइटल : मो मुस्लिम बनाम स्टेट ऑफ़ युपी (अब उत्तराखंड) (Criminal Appeal No. 1089 of 2011)
आदेश यहाँ पढ़ें –