पहली पत्नी और बच्चों को पालने में अक्षम मुस्लिम पति दूसरा विवाह नहीं कर सकता: इलाहबाद हाई कोर्ट

पहली पत्नी और बच्चों को पालने में अक्षम मुस्लिम पति दूसरा विवाह नहीं कर सकता: इलाहबाद हाई कोर्ट

इलाहबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि अपनी पहली पत्नी और बच्चों को पलने में अक्षम एक मुस्लिम विवाहित पुरुष अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह नहीं कर सकता है।
जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और जस्टिस राजेंद्र कुमार IV की पीठ पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली एक अपील की सुनवाई कर रही थी।

तथ्य

अपीलकर्ता ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी जिसमे उसके दांपत्य अधिकार की बहाली से संबंधित दावे को ख़ारिज कर दिया गया था।

आदेश

हाई कोर्ट ने कहा कि क़ुरान की सूरह 4 आयत 3 एक मुस्लिम द्वारा दूसरे विवाह से संबंधित है।
“और यदि तुम डरो (कि) अनाथ के विषय में न्याय नहीं कर सकोगे, तो नारियों में से जो तुम्हे भायें दो से, तीन से, चार तक से विवाह कर लो और यदि डरो कि (उनके बीच ) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से करो अथवा जो तुम्हारी स्वामित्व में हो, उसी पर बस करो। यह अधिक समीप है कि अन्याय न करो”।
हाई कोर्ट ने कहा कि दिलबर हबीब सिद्दीकी Vs स्टेट ऑफ़ यू पी और अन्य के मामले में इस कोर्ट की खंड पीठ ने माना था कि जहाँ तक मुस्लिम पुरुष के चार शादी के अधिकार की बात है तो पवित्र कुरान के सूरा 4 आयत 3 में मुस्लिम महिलाओं के लिए उचित देखभाल और प्रावधान प्रदान किया गया है।
कोर्ट ने कहा कि “उपरोक्त आयतों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब तक कोई व्यक्ति अनाथों के साथ न्याय नहीं कर सकता, तब तक द्विविवाह पवित्र नहीं होता। उक्त आयत सभी मुस्लिम पुरुषों को ‘अनाथों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करने और फिर अपनी पसंद की दो या तीन या चार महिलाओं से शादी करने की अनुमति से संबंधित हैं, लेकिन अगर उन्हें डर है कि वे उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाएंगे तो केवल एक”।

जहाँ तक पहली पत्नी के खिलाफ दांपत्य अधिकारों की बहाली का प्रश्न है, कोर्ट ने कहा कि इतवारी Vs असग़री और अन्य के मामले में इस कोर्ट ने फैसला दिया था कि “दुसरे विवाह के बाद पहली पत्नी के खिलाफ दांपत्य अधिकारों की बहाली के मामले में अगर अदालत को सबूतों की समीक्षा के बाद ऐसा लगता है कि दूसरे विवाह से पति इस तरह के आचरण का दोषी है कि कोर्ट के लिए पहली पत्नी को उसके साथ रहने पर मजबूर करना न्यायविरुद्ध है तो वह राहत देने से इंकार कर देगा। कोर्ट ने माना था कि मुस्लिम कानून बहुविवाह की अनुमति देता है लेकिन उसने इसे प्रोत्साहित नहीं किया है”।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने ए के गोपालन Vs स्टेट ऑफ़ मद्रास AIR 1950 SC 27, में माना था कि ” भारत के लोगों ने प्रस्तावना में व्यक्त की गयी अपनी संप्रभु इच्छा का प्रयोग करते हुए लोकतांत्रिक आदर्शों को अपनाया जो नागरिक को व्यक्तियों की गरिमा और अन्य पोषित मानवीय मूल्यों के एक साधन के रूप में उसके व्यक्तित्व के पूर्ण विकास और अभिव्यक्ति का आश्वासन देता है”।
वहीँ मेनका गाँधी Vs यूनियन ऑफ़ इंडिया (1978) 1 SCC 545 और ओल्गा टेलीस Vs बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरशन (1985) 3 SCC 545 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि “संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा में “गरिमा के साथ जीने का अधिकार” शामिल हो सकता है”।
सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा, अनुच्छेद 15 (2) में लिंग अदि के आधार पर गैर-भेदभाव की अवधारणा और अनुच्छेद 21 में निहित जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की अवधारणा जिसमे गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है, (यह सब) संविधान के आधार और उसकी बुनियादी विषेशताएं हैं। किसी भी कानून या प्रथा द्वारा इनमे से किसी का भी उल्लंघन उस कानून या प्रथा को असंवैधानिक बना देगा।

हाई कोर्ट ने ये भी कहा कि पर्सनल लॉ की आड़ में नागरिकों को संवैधानिक संरक्षण से वंचित नहीं किया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुप्रीम कोर्ट ने चमेली सिंह Vs स्टेट ऑफ़ यू पी 1995 3 SCC 523 में विस्तारित करते हुए सभ्य जीवन को मौलिक अधिकार घोषित किया था जिसमे भोजन, पानी और सभ्य वातावरण भी शामिल है।

हाई कोर्ट ने कहा कि एक मुस्लिम पति के पास अपनी पहली पत्नी की मौजूदगी में दूसरी पत्नी रखने का कानूनी अधिकार है।
लेकिन पति कोर्ट की सहायता से पहली पत्नी को उसकी इच्छा के खिलाफ अपने साथ रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। उसे ऐसे पति के साथ सह-निवास के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
यदि कोई पति अपनी पहली पत्नी की इच्छा के खिलाफ दूसरा विवाह करता है तो कोर्ट पहली पत्नी को उसकी इच्छा के खिलाफ पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

क्या है मामला ?

इस मामले में प्रतिवादी हमीदुन्निसा (पहली पत्नी) का विवाह अपीलकर्ता अज़ीज़ुर्रहमान (पति) से 12 मई 1999 को हुआ था। प्रतिवादी की सिर्फ एक बहन थी जिसकी बाद में मृत्य हो गयी थी। उसका कोई भाई नहीं था। वह अपने पिता की मात्र जीवित संतान है। अपीलकर्ता (पति) और प्रतिवादी (पहली पत्नी) के 4 बच्चे थे जिनमे एक की मृत्य हो गयी थी। अब 2 बेटे और 1 बेटी है। प्रतिवादी के पिता ने अपनी अचल संपत्ति उसे दान कर दी है। प्रतिवादी अपने पिता ही के साथ रहती है जो अब बहुत बूढ़े हो गए हैं जिनकी आयु 93 वर्ष बताई जाती है।
अपीलकर्ता (पति) ने प्रतिवादी (पहली पत्नी) को बिना बताए दूसरा विवाह कर लिया था। पति ने पारिवारिक न्यायालय में पत्नी को साथ रखने के लिए अपील की थी लेकिन न्यायालय ने अपील को ख़ारिज कर दिया था।

Case :- FIRST APPEAL No. – 700 of 2022 (Appellant) Azizurrahman (Respondent)) Hamidunnisha @ Sharifunnisha

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